धारा 377: कौन तय करेगा सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 पर दाखिल पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी है। यह याचिका केन्द्र सरकार तथा नाज़ फाउण्डेशन ने दायर की थी। न्यायमूर्ति एच एल दत्त और न्यायमूर्ति एस जे मुखोपाध्याय की खंडपीठ ने पुनर्विचार करने से इन्कार किया है। मामला यह है कि संविधान की धारा 377जो कि समलैंगिक सम्बन्धों को अपराध की श्रेणी में रखती है,उसे समाप्त करने के लिए लम्बे समय से मांग उठती रही है। संघर्षरत लोगों को उस समय बड़ी राहत मिली थी जब दिल्ली हाईकोर्ट ने केस पर यह फैसला दिया था कि समलैंगिक सम्बन्ध अपराध नहीं हैं। (2 जुलाई 2009)

धारा 377: कौन तय करेगा

सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 पर दाखिल पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी है। यह याचिका केन्द्र सरकार तथा नाज़ फाउण्डेशन ने दायर की थी। न्यायमूर्ति एच एल दत्त और न्यायमूर्ति एस जे मुखोपाध्याय की खंडपीठ ने पुनर्विचार करने से इन्कार किया है। मामला यह है कि संविधान की धारा 377जो कि समलैंगिक सम्बन्धों को अपराध की श्रेणी में रखती है,उसे समाप्त करने के लिए लम्बे समय से मांग उठती रही है। संघर्षरत लोगों को उस समय बड़ी राहत मिली थी जब दिल्ली हाईकोर्ट ने केस पर यह फैसला दिया था कि समलैंगिक सम्बन्ध अपराध नहीं हैं। (2 जुलाई 2009)
मालूम हो कि हाईकोर्ट ने प्रस्तुत फैसला सुनाते हुए संविधान निर्माताओं द्वारा - खासकर डा. अम्बेडकर द्वारा की गयी संवैधानिक नैतिकता पर विस्तृत चर्चा की थी। उसने कहा था कि संवैधानिक नैतिकता नागरिकों के बीच समानता का आधार है क्योंकि सार्वजनिक नैतिकता, जो एक तरह से समाज में वर्चस्वशाली लोगों की नैतिकता होती है वह कभी भी जनतंत्रा की गारंटी नहीं कर सकती और विशेषकर अपने नागरिकों -खासकर हाशिये पर पड़े नागरिकों को - समानता और सम्मान सुनिश्चित नहीं कर सकती।
जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले की इस तरह व्याख्या करने से इन्कार किया है और ऐसा हस्तक्षेप करने के लिए विधायिका को कहा है। याद रहे कि धारा- 377अंग्रेजों ने उस वक्त लागू की थी जब उन्हें लगता था कि उनकी सेना और उनकी बेटियों को पूरब के अवगुण लगेंगे। इस धारा को उन्होंने अपने देश में यह कहते हुए समाप्त किया है कि आपस में सहमति रखनेवाले वयस्कों के लिए ऐसे सम्बन्ध कोई अपराधा नहीं कहे जा सकते।
हाईकोर्ट के इस फैसले को चुनौती देते हुए बाबा रामदेव की संस्था से लेकर तमाम धार्मिक संगठनों ने, व्यक्तियों ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की थी तथा धारा - 377 को कायम रखने की अपील की थी। 11 दिसम्बर 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस फैसले को निरस्त कर दिया और फिर एक बार समलैंगिक सम्बन्ध अपराधा के दायरे में आ गए। ज्ञात हो कि इस आचरण के लिए उम्र कैद तक की सज़ा हो सकती है। यह कानून पुलिस द्वारा लोगों को प्रताड़ित करने का सबसे आसान हथियार भी बन जाता है।
इस संयोग कहा जा सकता है कि जिन दिनों सुप्रीम कोर्ट समलैंगिकता के अपराधीकरण पर मुहर लगा रही थी, उन्हीं दिनों तीन अन्य देशों में ही समलैंगिकता के खिलाफ सख्त कदम उठाए जाने या सख्त कानून बनने की बात दुनिया भर में सूर्खियां बन रही थीं। रूस जहां सोची में आलिम्पिक खेलों का आयोजन हो रहा है, उन्हीं दिनों उसके समलैंगिकता विरोधी कानून - जो समलैंगिकता के प्रचार पर पाबन्दी लगाता है - के पारित होने का ऐलान हुआ जिसके चलते आलिम्पिक खेलों में पहुंचनेवाले गे अर्थात समलैंगिक एथलीटों की सुरक्षा का प्रश्न भी खड़ा हुआ।  मालूम हो कि रूस में समलैंगिकों पर हमलों की घटनाएं इधार बीच बढ़ी हैं। मामला तभी ठंडा हो सका जब राष्ट्रपति पुतिन ने इस सम्बन्ध में एक बयान दिया। जनवरी 13 को नाइजीरिया के राष्ट्रपति गुडलक जोनाथन ने एक बिल पर हस्ताक्षर किए जो समलैंगिक रिश्तों का अपराधीकरण करता है, जो एक ऐसा कानून है जो कई मायनों में धारा - 377 से भी अधिक दमनकारी है। अफ्रीकी देश युगान्डा - जहां पिछले साल समलैंगिक अधिकारों के लिए सयि एक कार्यकर्ता के घर पर हमला करके उसे मार डाला गया था, वहां पर सम्भवतऱ् सबसे दमनकारी समलैंगिकताविरोधी कानून बन रहा है। दिसम्बर 2013 में ही वहां की संसद ने समलैंगिकता के लिए उम्र कैद की सज़ा देनेवाले विधोयक को मंजूरी दी।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा पुनर्विचार याचिका निरस्त करने के बाद मामला न्यायालयों का नहीं बल्कि हमारी संसद और सरकार का बनता है जिसके अधिकार क्षेत्र में कानून में संशोधन तथा जरूरत के हिसाब से नए कानून बनाने का सवाल तथा नागरिक अधिकारों को कानूनी कवच प्रदान करने का मसला आता है। मालूम हो कि केन्द्र सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले पर सहमति जतायी थी तथा सुप्रीम कोर्ट ने जब उसे निरस्त किया तब उस पर निराशा जतायी थी तथा साथ ही उसने पुनर्विचार याचिका दायर कर हाईकोर्ट के फैसले को बनाए रखने की बात कही यानि कि वह भी इस बात से सहमत है कि समलैंगिक सम्बन्धों को कानूनन अपराध के दायरे से बाहर निकाला जाना चाहिए। वही यह देखने में भी आया है कि प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा ने इस फैसले का समर्थन किया है अर्थात धारा 377 को बनाए रखने के प्रति अपनी सहमति जतायी है। गनीमत समझी जा सकती है कि बाकी लगभग सभी बड़ी पार्टियों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आलोचना ही की है।
इस पूरी बहस में एक बड़ा मसला धर्म और संस्कृति के कथित रक्षकों के रूख का बनेगा जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का इस आधार पर स्वागत किया था कि वह देश की पूरब की परम्पराओं,नैतिक मूल्यों और धार्मिक शिक्षाओं के अनुकूल है। उनका यह भी कहना था कि इस निर्णय ने - पश्चिमी संस्कृति के आमण और परिवार प्रणाली और सामाजिक जीवन के तानेबाने में बिखराव की आशंका को भी दूर किया है। उन्हें यह अवश्य पूछा जाना चाहिए कि लोगों के निजी मामलों में हस्तक्षेप का अधिकार उन्हें किसने दिया? क्या प्राकृतिक है और क्या अप्राकृतिक है इसे लोग खुद तय करें, इसे किसी सार्वजनिक नैतिकता के गढ़े हुए मानदण्डों से क्यों नापा जाना चाहिए ?
समलैंगिकता के मसले पर बीते कुछ वर्षों में समाज में सोच बदल रही है तथा यह इस बात का सबूत है कि धीरे धीरे लोग दूसरों के हकों के प्रति उदार हो रहे हैं। कुछ जडतावादियों को छोड़ दें तो शेष समाज में इसके प्रति एक अनुकूल वातावरण दिखता है। समलैंगिकता को एक विकृति मानने या बीमारी मानने की सोच भी समाप्त हो रही है। इतना ही नहीं चिकित्सा जगत में हो रहे विकासम या मनोविज्ञान जगत के अध्ययन यही प्रमाणित कर रहे हैं कि वह मानवीय यौनिकता के प्रगटीकरण की एक अभिव्यक्ति है। समलैंगिक सम्बन्धों के पक्ष में तर्क ढूंढने के लिए लोग पौराणिक कथाओं तथा प्राचीन संस्कृतियों का उदाहरण पेश करने तथा यह कैसे हमारी संस्कृति में पहले से रहा है यह साबित करने में भी ऊर्जा लगा रहे हैं। यह बात प्रमाणित करने के लिए जिन उदाहरणों को पेश किया जाता है उससे भारत की एकांगी छवि निर्मित होती है, जो यहां के बहुसंख्यकवादियों के लिए बेहद अनुकूल है। दूसरी अहम बात यह है कि चाहे वह प्राचीन हो या न हो और हमारी संस्कृति में हो या न हो , अब यह मांग है ऐसा चाहनेवाले हैं तो उन्हें रोकने का आधार नहीं बन सकता है। लैंगिकता लोगों का निजी मामला है तथा किसी भी युग में यौन सम्बन्ध सिर्फ सन्तानोत्पत्ति के लिए नहीं कायम किए जाते रहे हैं।झ्रभी तय कर सकती है

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