जरूरी है सभ्य समाज में पुलिस की जवाबदेही भले ही उच्चतम न्यायालय का स्पष्ट निर्देश हो कि हर संज्ञेय अपराध की एफआईआर जरूर दर्ज की जाय लेकिन, जैसे देश की पुलिस मशीनरी के लिए इसका कोई मतलब नही है। हर दरोगा अपने थाने का गुंडा होता है और थाने के भीतर उसके शब्द ही कानून होते हैं। रही सही कसर सरकारों के बेतुके फरमान पूरी कर देते ह

जरूरी है सभ्य समाज में पुलिस की जवाबदेही

भले ही उच्चतम न्यायालय का स्पष्ट निर्देश हो कि हर संज्ञेय अपराध की एफआईआर जरूर दर्ज की जाय लेकिन, जैसे देश की पुलिस मशीनरी के लिए इसका कोई मतलब नही है। हर दरोगा अपने थाने का गुंडा होता है और थाने के भीतर उसके शब्द ही कानून होते हैं। रही सही कसर सरकारों के बेतुके फरमान पूरी कर देते हैं। उत्तर प्रदेश में तो शासन स्तर से ही पुलिस को यह आदेश है कि अपराध की एफआईआर न्यूनतम दर्ज की जाय ताकि प्रदेश सरकार देश-दुनिया में यह साबित कर सके प्रदेश में अपराध का नामो-निशान तक नहीं है।  बड़ा ही निराशाजनक परिदृश्य है। यह निराशा तब और बढ़ जाती है जब पुलिस को और बेलगाम तथा निरंकुश बनाने वाले काले कानून देश के राजनीतिज्ञ पास करने पर हर वक्त उतारू रहते हैं।
देश की पुलिस के जनविरोधी बनते चरित्र, लोकतंत्र के प्रति उसकी बढ़ रही बर्बरता, समाज के प्रति उसकी जवाबदेही और जनता के बीच लगातार गिरती जा रही साख के कारणों पर बात करने से पहले,मैं खुद अपनें साथ हाल ही में घटी एक घटना का जिक्र यहां करना चाहूंगा। कुछ महीने पहले की बात है। मेरे पिता जी के नाम गांव में जो खेत और जमीन थी,उसका बैनामा धोखाधड़ी पूर्वक एक महिला ने खुद अपनी जमीन बेचते वक्त एक प्रापर्टी डीलर को कर दिया। करीब दस माह बीतने बाद,जब पिताजी को इस फ्राड का पता चला तो उन्होंने इस फर्जीवाड़े के लिए दोनों संबंधित पक्षों को लताड़ लगायी और, उन पर कानूनी कार्यवाई की बात कही। कानूनी कार्यवाई की बात से डरकर दोनों पक्षों ने इलाहाबाद के स्थानीय शिवकुटी थाने की पुलिस को इस बात के लिए पटाया कि अगर पीड़ित पक्ष थाने पर शिकायत के लिए आये तो उसे इतना डरा दीजिएगा कि वह चुप होकर घर बैठ जाय और किसी तरह की कानूनी कार्यवही के बारे में सोचने की हिम्मत ही न करे।
इसके बाद सोलह दिसंबर 2013 को, इस फ्राड की शिकायत के लिए जब मैं खुद पिताजी के साथ स्थानीय शिवकुटी थाने पर गया, तो थाने के दरोगा समीर कुमार सिंह ने मुझ पिता-पुत्र को धमकाते हुए कहा कि तुम्हारे खिलाफ तो जान से मारने की धमकी देने का मुकदमा दर्ज है। और इसके बाद उसने जबरिया मुझे और पिताजी को थाने में ही बैठा लिया। हमारी लिखी तहरीर भी छीन ली गयी, और बैग भी रखवा लिया गया। जब दरोगा से मैने पूंछा कि मेरे खिलाफ कोई एफआईआर कैसे हो सकती है जबकि मैं पिछले तीन माह से इलाहाबाद आया ही नही हूॅ? तो एक सिपाही हरि शंकर पाण्डेय ने जबरिया धक्का देकर मुझे दरोगा के कक्ष से बाहर निकाल दिया। थाने में बैठा लेने के कुछ देर बाद सारी बार्गेनिंग पच्चीस हजार रुपये की मांग के इर्द गिर्द घूमने लगी जो कि थाने से छोड़ने के एवज में सिपाही हरिशंकर पाण्डेय द्वारा मांगी जा रही थी। यही नहीं, मुझे केस को रफा दफा करने का भरोसा भी दिया जा रहा था। लेकिन, सात घंटे बाद जब शाम करीब छह बजे तक दरोगा को यह लग गया कि एक भी पैसा इन दोनों से मिलने वाला नही है, तो उसने हमें थाने से भगा दिया। फिर बाद में मुझे पता चला कि सिपाही हरिशंकर पाण्डेय ही थाने का पूरा लेन-देन देखता है। बाद में फ्राड के इस मामले में अदालत के हस्तक्षेप से इंसाफ की कुछ उम्मीद बंधी। अगर मेरी जगह एक अनपढ़ सामान्य आदमी होता तो वह डरकर घर बैठ जाता। इस घटना के बाद इंसाफ के बारे में तो वह कतई सोच ही नही सकता था।
बहरहाल, मेरे खिलाफ पुलिस में कोई शिकायत कभी नही रही। फिर भी, शिवकुटी पुलिस द्वारा किए गये इस बेहूदे दुर्वयवहार की शिकायत मैने कहीं नही की, क्योंकि इससे पहले भी इस तरह की घटनाएं पूरे देश में हुई हैं, रोज होती हैं, और ऐसा ही परिदृश्य रहा तो आगे भी होती रहेंगी। इस घटना ने मुझे कतई अचंभित नही किया। इसी संदर्भ में, अभी कुछ दिन पहले ही दिल्ली पुलिस की कार्यशैली और अर्कमण्यता के खिलाफ आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल धरने पर बैठे। दिल्ली पुलिस की कायशैली पर दिल्ली सरकार द्वारा दर्ज कराये गये इस विरोध के कुछ ही दिन बाद मानवता को शर्मसार करता दिल्ली पुलिस का एक वीडियो भी सार्वजनिक हुआ, जिसमें दिल्ली पुलिस के तीन जवानों ने एक लड़के को बेरहमी से पीटकर अधमरा कर दिया था, तथा उसका पर्स भी निकाल ले गये। उन्हे पहचान कर भले ही निलंबित कर दिया गया हो लेकिन यह साफ है कि जांच के नाम पर पुलिस उन्हे बचा देगी। यह पुलिस का आंतरिक भाई-चारा होता है। मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल का यह धरना अपने आप में ऐतिहासिक था, जिसमें पहली बार कोई मुख्यमंत्री अपनी ही राय की पुलिस के कार्यकलापों से खिन्न सार्वजनिक तौर पर विरोध दर्ज करा रहा था। लेकिन क्या इसके बाद भी दिल्ली पुलिस का चरित्र और चेहरा कुछ बदलेगा? दावे से कतई नहीं कहा जा सकता।
बहरहाल, अगर गौर किया जाय तो सवाल केवल उत्तर प्रदेश और दिल्ली पुलिस की बदनाम छवि का नही है। यही हालात कमोवेश पूरे देश की पुलिस मशीनरी का है। थाने के अंदर हत्या, बलात्कार, अवैध हिरासत, जबरिया वसूली, बेवजह बेजत करना, फर्जी एनकाउंटर और न जाने क्या-क्या? देश की पुलिस का अब यह सामान्य चरित्र बन चुका है। मानवाधिकर उत्पीड़न के हजारों मामले हर माह राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सामने आते हैं, लेकिन मुआवजे से यादा शायद ही कभी कुछ हो पाया हो। भले ही न्यायपालिका पुलिस को मानवीय चेहरे वाला और जवाबदेह बनाने के तमाम दिशा निर्देश जारी करे। भले ही उच्चतम न्यायालय का स्पष्ट निर्देश हो कि हर संज्ञेय अपराध की एफआईआर जरूर दर्ज की जाय लेकिन, जैसे देश की पुलिस मशीनरी के लिए इसका कोई मतलब नही है। हर दरोगा अपने थाने का गुंडा होता है और थाने के भीतर उसके शब्द ही कानून होते हैं। रही सही कसर सरकारों के बेतुके फरमान पूरी कर देते हैं। उत्तर प्रदेश में तो शासन स्तर से ही पुलिस को यह आदेश है कि अपराध की एफआईआर न्यूनतम दर्ज की जाय ताकि प्रदेश सरकार देश-दुनिया में यह साबित कर सके प्रदेश में अपराध का नामो-निशान तक नहीं है।  बड़ा ही निराशाजनक परिदृश्य है। यह निराशा तब और बढ़ जाती है जब पुलिस को और बेलगाम तथा निरंकुश बनाने वाले काले कानून देश के राजनीतिज्ञ पास करने पर हर वक्त उतारू रहते हैं।
बहरहाल, प्रश्न है कि पुलिस की इस जन विरोधी सूरत को बदला कैसे जाय? आखिर पुलिस के चेहरे को मानवीय बनाने में अड़चने कहां आ रही हैं? और राजनैतिक दलों की ओर से पुलिस मशीनरी को अधिकतम जवाबदेह बनाने की पहल क्यों नही की जाती। पुलिस को नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा के प्रति अधिकतम जवाबदेह कैसे बनाया जाय? सरकारें पुलिस मशीनरी को जवाबदेह बनाने से कन्नी क्यों काट जातीं हैं। आखिर आज पूरा पुलिस तंत्र लोकतांत्रिक ढांचे को निगलने के लिए तैयार क्यों खड़ा है? वक्त रहते इनकी निरंकुशता का हल क्यों नही निकाला जाता? सरकारें पुलिस को कानूनन अधिकतम जवाबदेह बनाने से हिचकती क्यों हैं। आखिर क्या वजह है कि पुलिस सुधार का मुद्दा चुनावी सवाल नही बनता? आखिर भारतीय राजनीति पुलिस का बर्बर चेहरा लोकतांत्रिक समाज के लिए जरूरी क्यों समझती है? क्या वह यह मान चुकी है कि इस आभासी लोकतंत्र की रक्षा के लिए पुलिस का खौफ जरूरी है? आखिर इनकी बर्बरता के खिलाफ सिर्फ मुआवजे के दो आंसू डालकर आम जनता में लोकतंत्र के भ्रम को कब तक जिंदा रखा जा सकेगा?
दरअसल, निरंकुश पुलिस के अपने फायदे नेताओं को मिलते हैं। हर राय की पुलिस अब सत्ताधारी पार्टी की एजेंट बन कर काम करती है। नेताओं के आदेश ही कानून होते हैं। पुलिस द्वारा की जा रही अधिकतम लूट और अवैध कमाई में जब शासक वर्ग का हिस्सा भी लगने लगा हो तो भला वे इस बारे में विचार ही क्यों करेंगे? लूट और हिंसा अब भारतीय राजनीति का चरित्र बन चुकी है। पुलिस के कार्यकलाप इसका स्पष्ट प्रकटीकरण कर देते हैं। और शायद यही वजह है कि राजनीति पुलिस सुधार की बात को यादा तरजीह नही देती बल्कि उसे और यादा अधिकार संपन्न बनाने में लगातार जुटी है वह भी बिना किसी जवाबदेही के साथ। लेकिन समाज पर इस निरंकुशता के अपने खतरे हैं और उनका विष्लेशण समय रहते किया ही जाना चाहिए।
कुल मिलाकर, लोकांत्रिक ढ़ाचे की मजबूती के लिए जरूरी है कि राजनीतिक दल पुलिस सुधारों के प्रति प्रतिबध्द हों। मौजूदा परिदृश्य में अगर लोकतांत्रिक समाज में पुलिस को अधिकतम जवाबदेह नही बनाया गया तो यह निरंकुशता एक दिन लोकतांत्रिक ढ़ाचें को ही निगल जायेगी। क्या देश की राजनीति के धुरंधर पुलिस को कानूनन अधिकतम जवाबदेह बनाने पर विचार करना पसंद करेंगे। शायद यह तब तक मुश्किल है जब तक राजनीति स्वच्छ नही होती। लेकिन पहल तो करनी पड़ेगी। चाहे विधायिका करे या जन आंदोलनो द्वारा खुद जनता। लोकतांत्रिक समाज में पुलिस को निरंकुश नही छोड़ा जा सकता। उसे अधिकतम जवाबदेह बनाना लोकतंत्र के हित में ही होगा

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